यान कोवाच का अंत (मशहूर हंगेरियाई कथाकार लायोश जिलाही की कालजयी कहानी)
उस दिन अपने
तारपीन-सने हाथ धोने की बजाय उसने उन्हें दरवाजे के पीछे कील पर टंगे चिथड़े से
पोंछ भर लिया। यंत्रवत अपना हरा ऐप्रन खोला और पैंट से छीलन झटक दी। दरवाजे से
निकलने से पहले वह उस बुड्ढे कारीगर की तरफ मुड़ा जो पीठ फेर कर खड़ा-खड़ा सरेस मिला
रहा था। थकान भरे स्वर में वह बोला : ‘गुड नाइट।'
सोकर उठा, तभी से एक अजीब,
रहस्यमय अनुभूति उसे अंदर से कंपाये
दे रही थी। उसके मुंह का स्वाद खराब था और रह-रह कर उसके हाथ मशीन चलाते-चलाते रुक
जाते और आंखें बंद हो जा रही थीं। घर आकर उदासीन भाव से वह खाना खाने लगा। वह एक
बुढ़िया विधवा के साथ एक छोटे-से कमरे में रहता था, जो कभी लकड़ी का गोदाम था और जिसमें
जरूरत भर की चीजें भी पूरी नहीं थीं।
उस रात 4 अक्टूबर, 1874 को सवा एक बजे वह,
आलमारी बनानेवाला कारीगर, बढ़ई यान कोवाच, मर गया। उसके बारे
में क्या बताऊं, कहां से शुरू करूं? वह मिष्टभाषी, बेजान चेहरेवाला एक
आदमी था, जिसके कंधे झुके हुए थे और मूंछें ताम्बई थीं।
जब उसकी मृत्यु हुई, वह 35 वर्ष का था।
दो दिन बाद उसे लोगों ने दफना दिया।
उसके कोई नहीं था,
न पत्नी, न बच्चे। केवल एक
महिला रिश्ते में थी, जो बैंक के प्रेसिडेंट तोर्दी की रसोई बनाती थी। वह यान कोवाच की
चचेरी बहन थी।
पांच साल बाद,
जिस आलमारी बनानेवाले की दुकान में वह
काम करता था, वह भी मर गया और नौ साल बाद, जिस बुढ़िया के काठगोदाम में वह रहता
था, मृत्यु ने उसे भी हर लिया।
14 साल बाद तोर्दी की रसोईदारिन, यान कोवाच की चचेरी
बहन की भी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के 21 महीने बाद मार्च 1895 में केरेपेशी.ऊंत
के किनारे एक शराबखाने में कुछ टैक्सीवाले लाल मेजपोश बिछी एक टेबुल पर शराब पी
रहे थे।
आधी रात के बाद,
शायद सवेरे तीन बजे, कुछ टैक्सी ड्राइवर
कोहनी के बल लेटे हुए थे और कर्कश ठहाके लगा रहे थे। निहायत घटिया सिगार से निकला
गहरा धुआं उनके चारों ओर छल्ले बना रहा था।
वे अपने ‘आर्मी' के दिनों के बारे में बातें कर रहे थे।
उनमें से एक,
विशालकाय, रक्तिम चेहरे और
दोहरी ठोढ़ीवाला आदमी, जिसे वे फ्रिट्ज कहकर पुकार रहे थे, कह रहा था, ‘एक बार मेरे एक
कारपोरल दोस्त ने एक नए रंगरूट का सिर स्टोव के नीचे डलवा दिया.'
इतना कहने के बाद उसे हंसी का इतना तेज दौरा पड़ा कि वह रुक गया और
अपनी हथेली टेबुल पर धम्म से दे मारी। ‘ही.ही.ही.' उसने कहकहा लगाया।
उसके गले और कनपटी की नसें फूल गईं और वह देर तक हिलता रहा। अपने
जिंदादिल ठहाकों के कारण वह ठीक से सांस भी नहीं ले पा रहा था।
‘उसका सिर स्टोव के अंदर डलवा दिया और
सौ बार अंदर से ही उससे कहलवाया.‘सर जुग्सफायरेर,
सो ऐंड सो रिपोर्टिंग!' बेचारा मूर्ख! वह
स्टोव के अंदर से बोल रहा था और हम लोग उसकी पीठ पर तब तक मारते रहे, जब तक हमारी
उंगलियों की चमड़ी नहीं निकलने लगी।'
वह फिर ठहाका लगाने के लिए रुका और उसने अपने दोस्त की तरफ मुड़कर
पूछा, ‘तुम्हें याद है फ्रैंजी?'
फ्रैंजी ने सिर हिलाया। उस विशालकाय आदमी ने माथे पर हाथ रख लिया।
‘अ र र. उस आदमी का नाम क्या था?'
फ्रैंजी ने क्षणभर सोचकर कहा, ‘आह.अर् र.कोवाच.यान कोवाच!'
यह अंतिम मौका था,
जब किसी मनुष्य ने यान कोवाच का नाम
लिया।
10 नवंबर, 1899 को हृदय रोग से पीड़ित एक औरत ओबुदा
फैक्टरी से सेंट जोंस अस्पताल लाई गई थी। वह करीब पैंतालीस वर्ष की थी।
उन्होंने उसे पहली मंजिल पर वार्ड नंबर तीन में रखा। शांत, भयभीत, बिस्तर पर लेटी वह
जानती थी कि वह मर जाएगी।
वार्ड में अंधेरा था। बाकी सभी रोगी पहले ही सो गए थे। केवल एक
छोटी-सी, नीली लालटेन की बत्ती रह-रहकर भभक उठती थी। फटी-फटी आंखों से वह
धुंधलके में टकटकी लगाए मन-ही-मन अपना अतीत दोहरा रही थी।
उसे गांव में गरमी के दिनों की एक रात याद आई और एक नौजवान भी, जिसकी आंखों से
कोमलता झलकती थी, जिसके हाथ में हाथ डाले वह गंध-भीने खेतों में घूमी थी और जिसके
साथ उस रात उसने पहली बार जिंदगी का सुख जाना था।
नौजवान यान कोवाच था और अब अंतिम बार उसका चेहरा, उसकी आवाज और उसकी
सूरत याद की गई थी। लेकिन उसका नाम नहीं लिया गया था, सिर्फ उस मरती हुई
औरत के दिमाग में कुछ लमहों के लिए वह प्रकट हुआ था।
उसके दूसरे साल काल्विनिस्ट चर्च आग से ध्वस्त हो गया और साथ ही वे
धुंधले-से कागजात भी, जिनमें यान कोवाच के जन्म और मृत्यु का ब्यौरा था।
1901 में जाड़ा बहुत ज्यादा पड़ा। जनवरी की
एक शाम एक आदमी फटे-पुराने कपड़े पहने हुए, छिपकर कब्रगाह की फेंस के घेरे पर चढ़
गया। आग जलाने के लिए उसे लकड़ी के दो क्रास चुराने थे।
उनमें से एक क्रास यान कोवाच की कब्र का था।
फिर बीस वर्ष बीत गए।
1920 में एक जवान वकील केचकेमेथ में अपनी
डेस्क के पास बैठा अपने पिता की संपत्ति की फेहरिस्त बना रहा था। उसने एक-एक दराज
खोली और कागज के हरेक पुर्जे को ध्यान से देखा। एक टुकड़े पर लिखा था- चार फ्लोरिन 40 क्रूजर प्राप्त
किए। पॉलिश की हुई दो कुर्सियों की कीमत। सादर, यान कोवाच।
वकील ने कागज पर एक नजर डाली, मुट्ठी में ले उसे मोड़-तोड़ दिया और
रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया।
दूसरे दिन नौकरानी टोकरी बाहर लाई और कागज-पत्र आंगन में एक किनारे
फेंक आई।
तीन दिन बाद बारिश हुई।
मुड़ा-तुड़ा कागज पूरा भीग गया। उसमें जो बचा वह था- ‘.य.कोवा.'
बारिश ने सब कुछ धो दिया था। अक्षर ‘य' बमुश्किल पढ़ा जा सकता था।
ये थोड़े-से अक्षर अंतिम झलक थी-यान कोवाच के अस्तित्व से संबंधित
अंतिम चिह्न।
कुछ हफ्ते बाद बादल गड़गड़ाए और मूसलाधार बारिश हुई। उस दोपहर शेष
अक्षर भी धुल गए। अक्षर ‘व' सबसे अधिक दिनों तक बचा रहा क्योंकि यान कोवाच ने ‘व' के घुमाव पर अपनी
कलम कुछ जोर से चलाई थी।
फिर बारिश ने उसे भी धो दिया।
और उस क्षण-उसकी मृत्यु के 49 वर्ष बाद-आलमारी बनानेवाले उस कारीगर
की जिंदगी इस धरती से सदा-सदा के लिए समाप्त और लुप्त हो गई।
(अनुवाद : चंद्रकिरण राठी)
(वाग्देवी से प्रकाशित हंगारी कहानियां
*‘उड़न-छू गांव'
से)।
published in Hindustan - 'शब्द' - साहित्य पृष्ठ - 23-02-2020
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